जो लोग भारत को न रहने लायक देश कहते है और उनकी इस बात में प्रमुख हस्तियां भी उनका साथ देती हैं, इस पोस्ट में उनके लिए कुछ खास है. जरूर पढ़े-
आये दिन आप लोगो को ये सुनने को मिलता ही होगा की यह देश अब रहने लायक नहीं बचा या यहां पर भाई चारा खत्म हो रहा है लेकिन ये बहुत पुराणी कहावत है की जब भी कोई बुराई बढ़ती है, अच्छाई उसे रोकने के लिए तत्पर रहती है. ऐसे में एक तस्वीर सामने आयी है जो इस बात को साबित करती दिख रही है .
“कभी आपस में तलाश कर तो देखो हम लोगों के दिलों में कितनी बेइंतेहा मोहब्बत है, बस कोई तो ईमानदारी से पहल तो करे”.
आज हम बात कर रहे हैं एक ऐसे ही भोपाल के ऐसे गैर मुसलमानी शख्स की जो भोपाल से 12 किलोमीटर दूर ईटखेड़ी जाने वाले रास्ते पर पड़ने वाले गांव के बुजुर्ग हैं.
वे कहते हैं की मेरे पास 5 भैंसे हैं लेकिन इज़्तिमा के वक़्त मैं इन तीन दिन किसी को भी दूध नहीं बेचता हूँ. और इज्तेमा के उन तीन दिनों में उस सारे दूध की चाय बनाकर बेचता हूँ उस सारे दूध की चाय बनाकर बेचता हूँ वो भी सिर्फ ३ रुपए में जिससे शकर, पत्ती, और गैस खर्च का पैसा निकल आये, मेरा कमाना मकसद नहीं है , सिर्फ सेवा करना चाहता हूं और अपनी 2 एकड़ जमीन है जिसपर सब्जी नहीं लगते, यहां इज्तेमा के समय आने वाली गाड़ियों को पार्किंग के लिए जगह बहुत कम होती है और मेरी जगह में भी लोग अपनी गाड़ियां मुफ्त में बिना किसी पैसे के खड़ी करते हैं.
इन बुजुर्ग के पूछने पर उन्होंने बताया कि यह सिलसिला कब से चल रहा है इस पर उन्होंने जवाब दिया कि 5 साल पहले जब मैं इस्तेमा के टाइम ईटखेड़ी में किसी काम से गया तो मैंने देखा कि 4-5 घर वहां ऐसे थे जिन पर बाहर शुभ-लाभ लिखा हुआ था और उन सभी घरों के अंदर मुस्लिम लोग वुज़ू बनाते और नमाज़ पड़ते हैं. जिसे देखने के बाद मैंने फैसला कर लिया कि पैसा तो इंसान जिंदगी भर ही कमाता है क्यों ना थोड़ा नेकी कमा ली जाए.
शुरू में तो मुझे कोई सही रास्ता नहीं सूझा और एक साल तो निकल ही गया लेकिन अगले साल इस्तेमा आने के पहले ही मैंने विचार करके रखा हुआ था कि मैं इन 3 दिनों जहां पर मेरा दूध बिकता है वहां पहले ही मना कर दूंगा . और फिर इस्तेमा का जब टाइम आया तो मैंने अपने घर के सामने चाय की दुकान लगा ली और सारे दूध की चाय बना कर पिलाने लगा और इसके साथ ही ईटखेड़ी में लगभग 2 एकड़ मेरी जमीन है उसे मैंने मोटरसाइकिल रखने के लिए खोल दी.
इनको देख कर लगता है की नफ़रतें तो जंगली झाड़ियों के जैसी बिना मेहनत के फलती फूलती हैं. लेकिन मोहब्बतों के गुलाब लगाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है.
नोट : आपको बता दें की इज्तेमा पहली बार भोपाल में ही 1947 में 14लोगो के साथ शुरू किया गया था . और अब इससे दुनिया भर में जाना जाता है.